गोरखपुर। 2025 का वर्ष इतिहास और सांस्कृतिक गौरव का एक विशेष पड़ाव लेकर आया है, पुण्यश्लोक महारानी देवी अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती। एक ऐसी महिला शासिका, जिन्होंने न केवल मालवा को समृद्ध और सशक्त बनाया, बल्कि पूरे भारत में धर्म, संस्कृति और सेवा का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया। अहिल्याबाई न केवल एक रानी थीं, बल्कि वह एक विचार थीं, सेवा, समर्पण और सशक्त नेतृत्व की प्रतीक। आज जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, तब अहिल्याबाई होल्कर का नाम स्वाभाविक रूप से सामने आता है।
देवी अहिल्याबाई होल्कर का जीवन समाज, संस्कृति और राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित था। उनका व्यक्तित्व भारतीय विरासत की अनमोल धरोहर माना जाता है। उन्हें लोकमाता, न्यायप्रिय शासिका और प्रजावत्सला जैसी उपाधियों से नवाजा गया। कठिन परिस्थितियों में भी उनके निर्णय, नेतृत्व क्षमता, दूरदृष्टि और कर्मनिष्ठा ने उन्हें एक आदर्श प्रशासक और जननेता के रूप में स्थापित किया।
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के चौंडी गांव में एक सामान्य पाटिल परिवार में हुआ था। उनके पिता माणकोजी शिंदे एक धार्मिक और शिक्षित व्यक्ति थे। बचपन से ही अहिल्या में अलग ही समझदारी, विवेक और करुणा थी। उस दौर में लड़कियों की शिक्षा का रिवाज नहीं था, लेकिन माणकोजी ने अहिल्या को पढ़ाया-लिखाया। उनकी किस्मत ने तब करवट ली जब इंदौर के शासक मल्हारराव होल्कर ने उन्हें अपने पुत्र खंडेराव होल्कर की पत्नी के रूप में चुना। विवाह के बाद अहिल्या होल्कर परिवार की सदस्य बनीं और उन्होंने न केवल घर, बल्कि जनता के दुख-दर्द को भी अपना समझा।
1766 में खंडेराव की मृत्यु और बाद में मल्हारराव की मृत्यु के बाद राज्य की बागडोर अहिल्याबाई के हाथों में आई। एक महिला द्वारा शासन संभालना उस समय असामान्य था, लेकिन अहिल्याबाई ने यह साबित किया कि कुशल नेतृत्व लिंग पर नहीं, दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। उन्होंने इंदौर को एक सुव्यवस्थित, न्यायपूर्ण और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध राज्य बना दिया। वे सुबह-सुबह दरबार लगाकर जनता की समस्याएं सुनतीं और त्वरित न्याय करती थीं। उनके शासन में न तो कोई भूखा सोता था, न ही अन्याय की छाया पड़ती थी।
अहिल्याबाई को केवल एक प्रशासिका कहना उनके कार्यों को कम आंकना होगा। वे एक समर्पित धार्मिक महिला भी थीं, जिन्होंने भारत के कोने-कोने में सैकड़ों मंदिर, घाट, कुंड और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। गया, सोमनाथ, रामेश्वरम, बद्रीनाथ, द्वारका, उज्जैन, नासिक जैसे तीर्थ स्थलों को संरक्षित किया। वाराणसी में दशाश्वमेध घाट और अन्य घाटों के पुनर्निर्माण में उनका योगदान अमूल्य रहा। उन्होंने इन सभी कार्यों को निजी धन से किया।
अहिल्याबाई ने अपने शासन में सख्त न्याय व्यवस्था लागू की थी। वे भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ खड़ी होती थीं। महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों के लिए उन्होंने विशेष प्रबंध किए। वे विधवा महिलाओं को सम्मानजनक जीवन देने में विश्वास रखती थीं और शिक्षा को बढ़ावा देती थीं। उनकी न्यायप्रियता का उदाहरण यह है कि एक बार उनके ही दरबार के किसी अधिकारी ने गलती की, तो अहिल्याबाई ने उसे बिना पक्षपात सजा दी।
महारानी अहिल्याबाई केवल शासक या धर्मप्रेमी नहीं थीं, वे कविता और भक्ति साहित्य की गहन समझ भी रखती थीं। वे संत तुकाराम, एकनाथ और ज्ञानेश्वर जैसे संतों से प्रेरणा लेती थीं और उन्होंने कई धार्मिक ग्रंथों के हिंदी, मराठी और संस्कृत अनुवाद करवाए। उन्होंने कलाकारों, कवियों और संगीतकारों को संरक्षण दिया और इंदौर को एक सांस्कृतिक राजधानी का रूप दिया। इस पहल से उनकी छवि एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक की भी बनी।
राजतंत्र में लोकतंत्र की चेतना से दीप्ति राजमाता का शासन काल आज भी सूराज और सुशासन के लिए एक आदर्श मानक है। लोक माता अहिल्याबाई होल्कर जी की नीति, नियत, निर्णय और नेतृत्व में राष्ट्रीय चिंतन, राष्ट्रीय दृष्टि और "एक भारत श्रेष्ठ भारत" का भाव सही मायने में दृष्टिगोचित होता है। लोकमाता अहिल्याबाई भारतीय संस्कृति की मूर्तिमान प्रतीक थीं। कितने आपत्ति के प्रसंग तथा कसौटियों के प्रसंग उस तेजस्विनी पर आए, लेकिन उन सबका बड़े धैर्य से मुकाबला कर धर्म संभालते हुए उन्होंने राज्य का संसार सुरक्षित रखा, यह उनकी विशेषता थी। उन्होंने भारतीय संस्कृति की परम्पराएं सबके सामने रखीं। भारतीय संस्कृति जब तक जाग्रत है, तब तक अहिल्याबाई के चरित्र से ही हमें प्रेरणा मिलती रहेगी।
आज, जब हम महिला लीडरशिप, न्याय, धर्म, और राष्ट्रसेवा की बात करते हैं, तो देवी अहिल्याबाई होल्कर का व्यक्तित्व और भी प्रासंगिक हो जाता है। 2025 में उनकी 300वीं जयंती भारत के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है, जब हम उन्हें केवल याद ही नहीं करेंगे, बल्कि उनके आदर्शों को जीवन में उतारने का संकल्प भी लें। नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सरकार और सामाजिक संस्थाएं इस अवसर को बड़े स्तर पर ‘अहिल्या गौरव वर्ष’ के रूप में मना रही हैं। इंदौर और महाराष्ट्र समेत समूचे भारत में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम, सेमिनार और ऐतिहासिक यात्राएं आयोजित की जा रही हैं, ताकि युवा पीढ़ी को उनके कार्यों से जोड़ा जा सके।
No comments:
Post a Comment